chilDren Of hOpe 4 मैं फौजी बनना चाहता हूँ

chilDren Of hOpe भगाणा आंदोलन डायरी 4 

06.05.14, 8.00 pm

हमनें सभी बच्चों को कल होमवर्क में ‘आप क्या बनना चाहते हैं ?’ विषय पर लिखने के लिए कहा। हम आप सभी को एक बालक अजय का लिखा हुआ बगैर कतर-ब्योंत किए पढ़ाना चाहते हैं . शायद आपके मन में भी कुछ भाव प्रश्न या प्रश्नचिन्ह बनकर खड़े हों… और इनकी पीड़ा आपको भी सुलगा सके।  

‘मैं फोजी (फौजी) बनना चाहता हूँ इसलिए की मैं देश की रक्षा करना चाहता हूँ। की मैं फौजी  इसलिए बनना चाहता हूँ क्योंकि मेरे घरवाले चाहते हैं। में इस देश को सुराना (सुधारना )चाहता हूँ। और अच्छा बनाना चाहूँगा। अब ये देश गंदा है। क्योंकि इस देश में बलात्कार ज्यादा होते हैं।

अगर ये गूंडे (गुंडे) मर जाएँ तो ये देश पूरा का पूरा बिलकुल अच्छा बन जाएगा। इन गूंडो को तो फांसी दिलाओ।   धन्यवाद फोजी( फौजी) ‘    जब हमनें इसे पहली बार पढ़ा तो हमारी आँखें भीज आयीं। कुछ असमंजस की सी स्थिति थी। कुछ आँसू खुशी के थे जिनमें उस बच्चे पर गर्व का ओज था की वह अपने समाज को दबंग गुंडों से बचना चाहता है, कुछ आँसू इन बच्चों के लिए कुछ सार्थक नहीं कर पाने की शर्म से भरे थे, कुछ सत्ता-प्रशासन पर खीज़ से और कुछ आँसू समाज की ब-द-बू-दा-र गंदगी का एहसास करवाते हुए … ऐसे आंसुओं का खारापन अब तलक बाकी है … और रहेगा।       Social movements https://matineebox.com/reviews/betaal-review-why-this-netflix-web-series-doesnt-deserve-a-review/

अजय जब गाँव में था तब वह सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था। दो साल पहले दबंगों द्वारा भगाणा के तथाकथित निम्न, शक्तिहीन और बाहुबल संख्या में कम जातियों का गाँव से जबरन विस्थापन कर दिया गया था. जो सरपंच की तानाशाही और प्रशासन की घोर अनदेखी की वजह से अब तक जारी रहा। 

इन समुदायों को आवाज़ उठाने की सजा इनकी बेटियों की गरिमा और सम्मान को ठेस पहुंचाकर दी गयी। इन बच्चों की पढ़ाई चौपट है …दिनचर्या का कुछ अता- पता नहीं, चि-ल-चि-ला-ती हुई दोपहरी और मच्छरों से भरी हुई रात ये सड़कों पर गुजार रहे हैं। लू और आँधी के गर्द से आने वाले दिन इनके लिए और भी सख्त होने वाले हैं। अजय भी अपने परिवार और समाज के साथ जंतर-मंतर, दिल्ली पर न्याय की उम्मीद में पिछले तीन सप्ताह से धरने पर बैठा हुआ है। क्या आप उसके साथ हैं … !!!       https://gajagamini.in/immortal-beloved/

जीवन और गरिमा का अधिकार तो मिल गया लेकिन क्या वह स्थितियाँ मिल पायी हैं जहां जेंडर/जाति/भाषा/धरम के बैरिकेड्स टूट गए हों ??? क्या हमारा समाज अपने भीतर वह स्पेस बना पाया है जहां ‘भाड़ में झोंक दिये गए’ लोगों के लिए सम्मानपूर्वक वापसी संभव हो सके ? दरअसल हमारा समाज, हमारी पैदाइश का मनोविज्ञान और हमारी मन:स्थितियाँ इतना परिवर्तित नहीं हुए हैं जहां वह एक लोचदार आकार ले सके, और जिस ढांचे में सभी की समान स्वीकार्यता हो। सामाजिक परिवर्तन की चाल को ‘तितलीनुमा घुसपैठियों’ (कुछ मौकापरस्त बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट) नें धीमा किया है।