Do Aankhen Barah Haath 1957 दो आँखें बारह हाथ

Do Aankhen Barah Haath 1957- इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमजोर हो न  हम चलें नेक रस्ते पे हमसे भूलकर भी कोई भूल हो न ..

आपमें शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसने यह प्रार्थना गीत न सुना हो . इस गीत में आम आदमी नेकी के रास्ते पर चलने के लिए ईश्वर से संबल मांग रहा है . दरअसल ईश्वर कोई मूर्त रचना नहीं है वह हमारे भीतर का शुभ है जो अच्छे और बुरे की लड़ाई में अच्छे को विजयी होते देखना चाहता है , वह हमारे मन का आत्मविश्वास है जो सबसे विपरीत परिस्थितियों में भी हमें डंटे रहने को प्रेरित करता है. यही वी. शांताराम की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ का सार है .

एक प्रगतिशील जेल वार्डन जेल के छः खूंखार अपराधियों को एक अच्छा इंसान बनाने का संकल्प लेता है और एक नितांत ऊबड़-खाबड़-बंजर जमीन पर इन्हीं कैदियों की कठोर मेहनत से फसल लहलहाने में सफल होता है. यह फसल पत्थर ह्रदय हो चुके कैदियों में सम्भावना के नए सोपान खुलने और बदलाव का संकेत है. कोई भी जन्म से अपराधी नहीं होता आमतौर पर व्यक्ति परिस्थितिवश या लालच में कोई अपराध कर बैठता है किंतु सामजिक बहिष्कार और उलाहना व्यक्ति को अपराध के ‘व्यवस्थित मोड’ में ले जाती है जहाँ वह एक के बाद एक अपराध करने लगता है .इसलिए वक़्त रहते ही इन अपराधियों की काउंसलिंग और मार्गदर्शन बेहद जरुरी हो जाता है .

यही सुधारवादी दृष्टि ‘ दो आँखें बारह हाथ’ के कथानक का केंद्र है जहां दो आँखें प्रतीक हैं शिक्षक ( निगहबान ) की और बारह हाथ प्रतीक हैं मेहनत के. यही हाथ देश-दुनिया की तस्वीर बदल सकते हैं और दिशा के अभाव में यही हाथ दुनियां के लिए खतरनाक हो सकते हैं .

Do Aankhen Barah Haath 1957

 अन्नासाहेब वी. शांताराम द्वारा निर्देशित और अभिनीत फिल्म दो आँखें बारह हाथ हिंदी सिनेमा का एक मास्टरपीस है .यह यथार्थपरक कथानक पर बनी हुई एक शानदार फिल्म है . इस फिल्म में कमर्शियल सिनेमा के चलताऊ अवसरों की जगह दृढ संकल्प और ह्रदय परिवर्तन के माध्यम से कहानी को प्रभावी बनाया गया है . फिल्म में कैदियों को रोता हुआ देखकर आपके मन का कलेश भी फूट पड़ेगा.

कलाकारों की संवाद अदायगी में पारसी सिनेमा का भी प्रभाव है इसलिए कभी-कभी संवाद बोलते हुए कलाकार अधिक नाटकीय होते हुए दिखाई पड़ेंगे. मोनोक्रोम ( Black & White ) में बनी यह फिल्म जेल के खूंखार कैदियों के पुनर्वास और व्यक्तित्व परिवर्तन की संभावना को अपनी पूरी सघनता में प्रस्तावित करती है . निराशा-आशा, अवसाद-ऊर्जा, अहंकार-समर्पण और अपराधबोध-आत्मबोध की सहज मानवीय प्रवृतियों और उभरती हुई पूंजीवादी मनोवृति से लड़ते हुए आखिरकार जेलर इन अपराधियों को एक सकारात्मक दिशा देने में सफल होता है जिसकी कीमत उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है . पूंजीवाद का यह प्रस्फुटन पारम्परिक धन्ना सेठों और साहूकारों की संसाधनों और सुविधाओं के केन्द्रीकरण की मनोवृति का ही अगला विस्तार है .

फिल्म को अनावश्यक आदर्शवादिता से बचाने के लिए और गंभीर कथानक में सरसता को पिरोने के लिए एक खिलौने बेचने वाली नटखट और चुलबुली लड़की की भूमिका बुनी गयी है जिसके चरित्र को वी. शांताराम की पसंदीदा अभिनेत्री संध्या ने परदे पर साकार किया है . संध्या की उपस्थिति फिल्म में कहीं नीरव में बजने वाले नूपुर की तरह है, जो सुकून देती है .संध्या की भूमिका फिल्म को सूखा वृत्तचित्र होने से भी बचा ले जाती है    फिल्म के गीतों में ध्वनियों का बेहद सुंदर इस्तेमाल किया गया है जो आपके कानों में देर तलक झनकती रहती हैं .फिल्म का संगीत वसंत देसाई ने दिया है जो बेहद कर्णप्रिय, रचनात्मक और सकारत्मक ऊर्जा देने वाला है .

भरत व्यास के लिखे गीतों में देसी मिठास है ‘सैयां झूठो का बड़ा सरताज निकला’ एक मधुर गीत है ; गीत के बोल और लोक वाद्य सारंगी की धुनों पर थिरकती संध्या कमाल की अभिव्यक्ति देती हैं . गीत देसज ध्वनियों और शब्दों से गुंथे हुए हैं .शब्दों की आवृति कहीं-कहीं इतनी अधिक प्रभावी है कि शब्द दृश्य बनकर उभरने लगते हैं ‘उमड़ घुमड़कर आयी रे घटा’ ऐसा ही एक गीत है .आपको आशुतोष की फिल्म लगान का वह गीत याद होगा जहाँ बारिश का होना आशा के प्रस्फुटन का प्रतीक बनकर आता है ठीक वैसा ही प्रभाव इस गीत का है .  

फिल्म में एक बेहद भावुक कर देने वाला लोरी गीत ‘मैँ गाऊं तू चुप हो जा ‘ भी है .आप इस गीत को आँख बंद कर सुनें, आप महसूस करेंगे की मानो आप कोई राग सुन रहे हों .धीमे-धीमे किसी पहाड़ के मठ-मंदिर से आने वाली ध्वनियां आपको सुनाई देने लगेंगी. एक बार फिर ध्वनियों का बहोत सुन्दर प्रयोग हुआ है . गीत के बोल भी बेहद ज़हीन है . लता जी ने गीत को बेहद ठहराव के साथ गया है . क्लासिक सिनेमा में अमूमन हर फिल्म में होने वाले लोरी गीत अब सुनाई नहीं पड़ते. यह दुखद है की आजकल सिनेमा में लोरी गीतों का अभाव सा है; आखिरी बार कोई नया लोरी गीत कब सुना था याद नहीं पड़ता .

फिल्म की कहानी मराठी कवि और लेखक जी.डी. माडगुळकर ने लिखी है. माडगुळकर साहब को ‘गीत रामायण’ के कम्पोजिशन के कारण आधुनिक भारत का वाल्मीकि कहकर भी सम्बोधित किया जाता है . इस फिल्म को हिंदी श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया गया .बर्लिन और कई अन्य अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में इस फिल्म को बहोत अच्छा क्रिटिक मिला. ‘दो ऑंखें बारह हाथ’ एक उत्कृष्ट फिल्म है . वी. शांताराम का सिनेमा परिवर्तन और आशा को प्रस्तावित करता है सिनेमा में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें दादा साहब फाल्के और पद्मश्री पुरस्कार से भी नवाज़ा गया .सूचना और प्रसारण मंत्रालय ( Information & Broadcasting Ministry ) को क्लासिक सिनेमा की स्क्रीनिंग समय-समय पर फिर से करनी चाहिए ताकि सिने प्रेमी ऐसी अप्रतिम फिल्मों का ज़ायक़ा ले सकें.