Heere Ka Heera हीरे का हीरा ‘उसने कहा था’ से आगे की कहानी

Heere Ka Heera ‘हीरे का हीरा’ उसने कहा था का अगला पड़ाव है जिसे डॉ. सुशील कुमार फुल्ल ने विस्तार दिया !

‘हीरे का हीरा’ चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कालजयी कहानी Usne Kaha Tha का अगला पड़ाव है. बहुत से समीक्षकों ने इस कहानी को अधूरा माना है. राजेंद्र यादव और श्री मनोहरलाल जी ने लेखकों को इसे पूरा करने का आह्वान किया जिसे पालमपुर हिमाचल प्रदेश के कथाकार व साहित्य इतिहास लेखक डॉ. सुशील कुमार फुल्ल ने स्वीकारा और पूरा भी किया. ‘हीरे का हीरा’ मूल कथा अधूरी थी या पूरी इस पर आज भी विवाद है. फिलहाल आप इस मूल कहानी और डॉ. फुल्ल द्वारा किए गए विस्तार को पढ़िए और स्वयं निर्णय लीजिए-

आज सवेरे ही से गुलाबदेई काम में लगी हुई है. उसने अपने मिट्टी के घर के आंगन को गोबर से लीपा है, उस पर पीसे हुए चावल से मंडन मांडे हैं. घर की देहली पर उसी चावल के आटे से लीकें खैंची हैं और उन पर अक्षत और बिल्‍वपत्र रक्‍खे हैं. दूब की नौ डालियां चुन कर उनने लाल डोरा बांध कर उसकी कुलदेवी बनाई है और हर एक पत्ते के दूने में चावल भर कर उसे अंदर के घर में, भींत के सहारे एक लकड़ी के देहरे में रक्‍खा है. कल पड़ोसी से मांग कर गुलाबी रंग लाई थी उससे रंगी हुई चादर बिचारी को आज नसीब हुई है. लठिया टेकती हुई बुढ़ि‍या माता की आंखें यदि तीन वर्ष की कंगाली और पुत्र वियोग से और डेढ़ वर्ष की बीमारी की दुखिया के कुछ आंखें और उनमें ज्‍योति बाकी रही हो तो-दरवाज़े पर लगी हुई हैं. तीन वर्ष के पतिवियोग और दारिद्रय की प्रबल छाया से रात-दिन के रोने से पथराई और सफ़ेद हुई गुलाबदेई की आंखों पर आज फिर यौवन की ज्‍योति और हर्ष के लाल डोरे आ गए हैं. और सात वर्ष का बालक हीरा, जिसका एकमात्र वस्‍त्र कुरता खार से धो कर कल ही उजाला कर दिया गया है, कल ही से पड़ोसियों से कहता फिर रहा है कि मेरा चाचा आवेगा. 

बाहर खेतों के पास लकड़ी की धमाधम सुनाई पड़ने लगी. जान पड़ता है कि कोई लंगड़ा आदमी चला आ रहा है जिसके एक लकड़ी की टांग है. दस महीने पहिले एक चिट्ठी आई थी जिसे पास के गांव के पटवारी ने पढ़ कर गुलाबदेई और उसकी सास को सुनाया था. उसें लिखा था कि लहनासिंह की टांग चीन की लड़ाई में घायल हो गई है और हांगकांग के अस्पताल में उसकी टांग काट दी गई है. माता के वात्‍सल्‍यमय और पत्‍नी के प्रेममय हृदय पर इसका प्रभाव ऐसा पड़ा कि बेचारियों ने चार दिन रोटी नहीं खाई थी. तो भी-अपने ऊपर सत्‍य आपत्ति आती हुई और आई हुई जान कर भी हम लोग कैसे आंखें मीच लेते हैं और आशा की कच्‍ची जाली में अपने को छिपा कर कवच से ढका हुआ समझते हैं!

वे कभी-कभी आशा किया करती थीं कि दोनों पैर सही सलामत ले कर लहनासिंह घर आ जाए तो कैसा! और माता अपनी बीमारी से उठते ही पीपल के नीचे के नाग के यहां पंचपकवान चढ़ाने गई थी कि ‘नाग बाबा! मेरा बेटा दोनों पैरों चलता हुआ राजी-खुशी मेरे पास आवे.’ उसी दिन लौटते हुए उसे एक सफ़ेद नाग भी दीखा था जिससे उसे आशा हुई थी कि मेरी प्रार्थना सुन ली गई. पहले पहले तो सुखदेई को ज्‍वर की बेचैनी में पति की टांग-कभी दहनी और कभी बाईं-किसी दिन कमर के पास से और किसी दिन पिंडली के पास से और फिर कभी टखने के पास से कटी हुई दिखाई देती परंतु फिर जब उसे साधारण स्‍वप्‍न आने लगे तो वह अपने पति को दोनों जांघों पर खड़ा देखने लगी. उसे यह न जान पड़ा कि मेरे स्‍वस्‍थ मस्तिष्‍क की स्‍वस्‍थ स्‍मृति को अपने पति का वही रूप याद है जो सदा देखा है, परंतु वह समझी की किसी करामात से दोनों पैर चंगे हो गए हैं.

***

किंतु अब उनकी अविचारित रमणीय कल्‍पनाओं के बादलों को मिटा देने वाला वह भयंकर सत्‍य लकड़ी का शब्‍द आने लगा जिसने उनके हृदय को दहला दिया. लकड़ी की टांग की प्रत्‍येक खटखट मानो उनकी छाती पर हो रही थी और ज्‍यों-ज्‍यों वह आहट पास आती जा रही थी त्‍यों-त्‍यों उसी प्रेमपात्र के मिलने के लिए उन्‍हें अनिच्‍छा और डर मालूम होते जाते थे कि जिसकी प्रतीक्षा में उसने तीन वर्ष कौए उड़ाते और पल-पल गिनते काटे थे प्रत्‍युत वे अपने हृदय के किसी अंदरी कोने में यह भी इच्‍छा करने लगीं कि जितने पल विलंब से उससे मिलें उतना ही अच्‍छा, और मन की भित्ति पर वे दो जांघों वाले लहनासिंह की आदर्श मूर्ति को चित्रित करने लगी और उस अब फिर कभी न दिख सकने वाले दुर्लभ चित्र में इतनी लीन हो गई कि एक टांग वाला सच्‍चा जीता जागता लहनासिंह आंगन में आ कर खड़ा हो गया और उसके इस हंसते हुए वाक्‍यों से उनकी वह व्‍यामोहनिद्रा खुली कि- ‘अम्‍मा! क्‍या अंबाले की छावनी से मैंने जो चिट्ठी लिखवाई थी वह नहीं पहुंची?’ माता ने झटपट दिया जगाया और सुखदेई मुंह पर घूंघट ले कर कलश ले कर अंदर के घर की दहनी द्वारसाख पर खड़ी हो गई. 

लहनासिंह ने भीतर जा कर देहरे के सामने सिर नवाया और अपनी पीठ पर की गठरी एक कोने में रख दी. उसने माता के पैर हाथों से छू कर हाथ सिर को लगाया और माता ने उसके सिर को अपनी छाती के पास ले कर उस मुख को आंसुओं की वर्षा से धो दिया जिस पर बाक्‍तरों की गोलियों की वर्षा के चिह्र कम से कम तीन जगह स्‍पष्‍ट दिख रहे थे.

अब माता उसको देख सकी. चेहरे पर दाढ़ी बढ़ी हुई थी और उसके बीच-बीच में तीन घावों के खड्डे थे. बालकपन में जहां सूर्य, चंद्र, मंगल आदि ग्रहों की कुदृष्टि को बचानेवाला तांबे चांदी की पतड़ि‍यों और मूंगे आदि का कठला था वहां अब लाल फीते से चार चांदी के गोल-गोल तमगे लटक रहे थे. और जिन टांगों ने बालकपन में माता की रजाई को पचास-पचास दफा उघाड़ दिया उनमें से एक की जगह चमढ़े के तसमों से बंधा हुआ डंडा था. धूप से स्‍याह पड़े हुए और मेहनत से कुम्‍हलाए हुए मुख पर और महीनों तक खटिया सेने की थकावट से पिलाई हुई आंखों पर भी एक प्रकार की, एक तरह के स्‍वावलंबन की ज्‍योति थी जो अपने पिता, पितामह के घर और उनके पितामहों के गांव को फिर देख कर खिलने लगती थी.

माता रुंधे हुए गले से न कुछ कह सकी और न कुछ पूछ सकी. चुपचाप उठ कर कुछ सोच-समझ कर बाहर चली गई. गुलाबदेई जिसके सारे अंग में बिजली की धाराएं दौड़ रही थीं और जिसके नेत्र पलकों को धकेल देते थे इस बात की प्रतीक्षा न कर सकी कि पति की खुली हुई बांहें उसे समेट कर प्राणनाथ के हृदय से लगा लें किंतु उसके पहले ही उसका सिर जो विषाद के अंत और नवसुख के आरंभ से चकरा गया था पति की छाती पर गिर गया और हिंदुस्‍तान की स्त्रियों के एकमात्र हाव-भाव अश्रु के द्वारा उनकी तीन वर्ष की क़ैद

हुई मनोवेदना बहने लगी. वह रोती गई और रोती गई. क्‍या यह आश्‍चर्य की बात है? जहां की स्त्रियां पत्र लिखना-पढ़ना नहीं जानतीं और शुद्ध भाषा में अपने भाव नहीं प्रकाश कर सकतीं और जहां उन्‍हें पति से बात करने का समय भी चोरी से ही मिलता है वहां नित्‍य अविनाशी प्रेम का प्रवाह क्‍यों न‍हीं अश्रुओं की धारा की भाषा में उमड़ेगा.

(गुलेरी जी द्वारा लिखी गयी कहानी यहीं तक है, इससे आगे यह कहानी कथाकार डॉ. सुशील कुमार फुल्ल ने लिखी है )   

प्रेम का अमर नाम आनंद है. इसकी बेल जन्‍म-जन्‍मांतर तक चलती है. गुलाबदेई को तीन वर्ष के बाद पति-स्‍पर्श का मिला था. पहले तो वह लाजवंती-सी छुईमुई हुई, फिर वह फूली हुई बनिए की लड़की-सी पति में ही धसती चली गई. पहाड़ी नदी के बांध टूटना ही चाहते थे कि लहनासिंह लड़खड़ा गया और गिरते-गिरते बचा. सकुचायी-सी, शर्मायी-सी गुलाबदेई ने लहनासिंह को चिकुटी काटते हुए कहा,‘बस…’

और आंखों ही आंखों में बिहारी की नायिका के समान भरे मान में मानो कहा,‘कबाड़ी के सामने भी कोई लहंगा पसारेगी?’

हारे को हरिनाम, गुलाबदेई. मेरी प्राणप्‍यारी. मैं हारा नहीं हूं. सुनो… मर्द और कर्द कभी खुन्‍ने नहीं होते गुलाबो… और चीन की लड़ाई ने तो मेरी धार और तेज कर दी है.’ लहनासिंह तन कर खड़ा हो गया था! गुलाबदेई सरसों-सी खिल आई. मानो लहनासिंह उसे कल ही ब्‍याह कर लाया हो. मां रसोई करने चली गई थी. तीन साल बाद बेटा आया था. उसके कानों में बैसाखियों की खड़खड़ाहट अब भी सुनाई दे रही थी. भगवती से कितनी मन्‍नतें मानी थीं. वह शिवजी के मंदिर में भी हो आई थी! आखिर देवी-देवता चाहें तो वह सही सलामत भी आ सकता था परंतु अब तो वह साक्षात सामने था. फिर भी मां को किसी चमत्‍कार की आशा थी, वह सीडूं बाबा से पुच्‍छ लेने जाएगी. फिर देगची में कड़छी हिलाते हुए सोचने लगी… देश के लिए एक टांग गंवा दी तो क्‍या हुआ. उसकी छाती फूल गई. बेटे ने मां के दूध की लाज रखी थी.

चाचा, तुम आ गए!

हां बेटा. लहनासिंह ने उसे अंक में भरते हुए कहा.

चाचा… इतने दिन कहां थे?

बेटा मैं लाम पर था. चीन से युद्ध हो रहा था न…

चीन कहां है? मासूमियत से बालक ने पूछा!

हिमालय के उस पार.

मुझे भी ले चलोगे न?

अब मैं नहीं जाऊंगा. फौज से मेरी छुट्टी हो गई! कुछ सोच कर उसने फिर कहा – बेटा, तुम बड़े हो जाओगे

तो फौज में भर्ती हो जाना.

मैं भी चीनियों को मार गिराऊंगा! लेकिन चाचा क्‍या मेरी भी टांग कट जाएगी ?

धत तेरी! ऐसा नहीं बोलते. टांग कटे दुश्‍मनों की. फिर हीरे ने जेब में आम की गुठली से बनाई पीपनी

निकाली और बजाने लगा. बरसात में आम की गुठलियां उग आती हैं, तो बच्‍चे उस पौधों को उखाड़ कर

गुइली में से गिट्टक निकाल कर बजाने लगते हैं. बड़े-बूढ़े खौफ दिखाते है. कि गुठलियों में सांप के बच्‍चे

होते हैं परंतु इन बंदरों को कौन समझाए… आदमी के पूर्वज जो ठ‍हरे!

तुम मदरसे जाते हो?

हूं… लेकिन मौलवी की लंबी दाढ़ी से डर लगता है…

क्‍यों ?

दाढ़ी में उसका मुंह ही दिखायी नहीं देता…

तुम्‍हें मुंह से क्‍या लेना है. अच्‍छे बच्‍चे गुरुओं के बारे में ऐसी बात न‍हीं करते.

मेरा नाम तो अभी कच्‍चा है…

नाम कच्‍चा है या कच्‍ची में ही…

मैं पक्‍की में हो जाऊंगा लेकिन बड़ी मां ने अधन्‍नी नही दी… फीस लगती है चाचा. और वह पीपनी

बजाता हुआ गयब हो गया.

लहनासिंह सोचने लगा… उमर कैसे ढल जाती है… पहाड़ी नदी-नाले मैदान तक पहुंचते-पहुंचते संयत हो जाते हैं… ढलती हुई उमर में वर्तमान के खिसकने और भविष्‍य के अनिश्‍चय घेर लेते हैं. चीन की लड़ाई में जख्मी होने पर जब अस्‍पताल में था… तो हर नर्स उसे आठ-नौ साल की सूबेदारनी दिखाई देती… सिस्‍टर नैन्‍सी से एक दिन उसने पूछा भी था, सिस्‍टर क्‍या कभी तुम आठ साल की थीं?

अरे बिना आठ की उमर पार किए मैं बाईस की कैसे हो सकती हूं… तुम्‍हें कोई याद आ रहा है…

हां… वह आठ साल की छोकरी… दही में नहाई हुई… बहार के फूलों-सी मुस्‍कराती हुई मेरी जिंदगी में

आई थी… और फिर एकएक बिलुप्त हो गई… सूबेदारनी बन गई… कहते-कहते वह खो गया था!

हवलदार… तुम परी-कथाओं में विश्‍वास रखते हो?

परियों के पंख होते हैं न… वे उड़ कर जहां चाहें चली जाएं… कल्‍पना ही तो जीवन है.

परंतु तुम्‍हें तो शौर्य-मेडल मिला है.

अगर मेरी कल्‍पना में वह आठ वर्षिय कन्‍या न होती तो मुझे कभी शौर्य-मेडल न मिलता… मेरी प्रेरणा

वही थी…

तुमने विवाह नहीं बनाया. नैन्‍सी ने पूछा!

विवाह तो बनाया… कनेर के फूल-सी लहलहाती मेरी पत्‍नी है… एक बेटा है… और मेरी बूढ़ी मां है…

तो फिर परियों की कल्‍पना… आठ वर्ष की कन्या का ध्‍यान…

हां, सिस्‍टर… मैंने 35 साल पहले उस कन्‍या को देखा था… फिर वह ऐसे गायब हुई जैसे कुरली बरसात के बाद कही अदृश्‍य हो जाती है… और मैं निपट… अकेला… नैन्‍सी चली गई थी. वह सोचता रहा था- स्‍वप्‍न में सफेद कौओं का दिखाई देना शुभ लक्षण है या अशुभ का प्रतीक… अस्‍पताल में अर्ध-निमीलित आंखों में अनेक देवता आते… कभी उसे लगता कि फनियर नाग ने उसे कमर से कस लिया है…शायद यह नपुंसकता का संकेत न हो… वह दहल जाता… मां… पत्‍नी… और हीरा… कैसे होंगे… गांव में वैसे तो ऐसा कुछ नहीं जो भय पैदा करे… लेकिन तीन साल तो बहुत होते हैं… वे कैसे रहती होंगी… युद्ध में तो तनख्वाह भी न‍हीं पहुंचती होगी… फिर उसे ध्‍यान आया कि जब वह चलने लगा था तो मां ने कहा था – बेटा… हमारी चिंता नहीं करना. आंगन में पहा‍ड़ि‍ए का बास हमारी रक्षा करेगा… फिर उसे ध्‍यान आया… कई बार पहाड़ि‍या नाराज हो जाए तो घर को उलटा-पुलटा कर देता है. आप चावल की बोरी को रखें… वह अचानक खुल जाएगी और चावलों का ढेर लग जाएगा. कभी पहाड़ि‍या पशुओं को खोल देगा… अरे नहीं… पहाड़ि‍या तो देवता होता है, जो घर-परिवार की रक्षा करता है. वह आश्‍वस्‍त हो गया था.

मुन्‍नुआ, तू कुथी चला गिया था?

मां फौजी तो हुक्‍म का गुलाम ओता है.

फिरकू तां जर्मन की लड़ाई से वापस आ गया था… उसका तो कोई अंग-भंग वी नईं हुआ था…और तू पता

नहीं कहां-कहां भटकता रहा… तिझो घरे दी वी याद नी आई.

अम्‍मा… फिरकू तो फिरकी की भांति घूम गया होगा लेकिन मैं तो वीर मां का सपूत हूं… उस पहाड़ी मां

का जो स्‍वयं बेटे को युद्धभूमि में तिलक लगा कर भेजती है… बहाना बना कर लौटना राजपूत को शोभा

नहीं देता…

हां, सो तो तमगे से देख रेई हूं लेकि‍न…

लेकिन क्‍या अम्‍मा… तुम चुप क्‍यों हो गई.

बुलाबदेई तो वीरांगना है… उसे तो गर्व होना चाहिए…

हां…बेटा…फौजी की औरत तो तमगों के सहारे ही जीती है लेकिन…

लेकिन क्‍या अम्‍मा… कुछ तो बोलो!

उसका हाल तो बेहाल रहा… आदमी के बिना औरत अधूरी है… और फौजी की औरत पर तो कितणी

उंगलियां उठती हैं… तुम क्‍या जानो. तुम तो नौल के नौलाई रेअ.

हूं !

क्‍या तमगे तुम्‍हारी दूसरी टांग वापस ला सकते हैं? और तीन साल से सरकार ने सुध-बुध ही कहां ली…

लहनासिंह के पास कोई जवाब नहीं था. सूबेदारनी ने किस अनुनय-विनय से उसे बींध लिया था…

हजारासिंह बोधा सिंह की रक्षा करके उसने कौन-सा मोर्चा मार लिया था… वह युद्ध-भूमि में तड़प रहा था और रैड-क्रास वैन बाप-बेटे को ले कर चली गई थी… उसने जो कहा था मैंने कर दिया… सोच कर फूल उठा लेकिन गुलाबदेई के यौवन का अंधड़ कैसे निकला होगा… लोग कहते होंगे… बरसाती नाले-सा अंधड़ आया और वह झरबेरी-सी बिछ गई थी… तूफान में दबी… सहमी सी लंगड़े खरगोश-सी… नहीं… लंगड़ी वह कहां है… लंगड़ा तो लहनासिंह आया है… चीन में नैन्‍सी से बतियाता… खिलखिलाता…. अम्‍मा फिर रसोई में चली गई थी! गुलाबदेई उसकी लकड़ी की टांग को सहला रही थी… शायद उसमें स्‍पंदन पैदा हो जाए… शायद वह फिर दहाड़ने लगे… तभी लहनासिंह ने कहा था, गुलाबो… यह नहीं

दूसरी टांग…

वह दोनों टांगों को दबाने लगी थी… और अश्रुधारा उसके मुख को धो रही थी… वह फिर बोला –

गुलाबो… तुम्‍हें मेरे अपंग होने का दुख है?

नहीं तो!

फिर रो क्‍यों रही हो…

फौजी की बीबी रोए तो भी लोग हंसते हैं और अगर हंसे तो भी व्‍यंग्‍य-बाण छोड़ते हैं… वह तो जैसे

लावरिस औरत हो… वह फूट पड़ी थी!

मैं तो सदा तुम्‍हारे पास था!

अच्‍छा! अब ज़रा वह खिलखिलाई.

हीरे का हीरा पा कर भी तुम बेबस रहीं.

और तुम्‍हारे पास क्‍या था?

तुम!

नहीं… कोई मीम तुम्‍हें सुलाती होगी… और तुम मोम-से पिघल जाते होओगे… मर्द होते ही ऐसे हैं !

जरा खुल कर कहो न…

गोरी-चिट्टी मीम देखी नहीं कि लट्टू हो गए…

तुम्‍हें शंका है?

हूं… तभी तो इतने साल सुध नहीं ली…

मैं तो तुम्‍हारे पास था हमेशा… हमेशा…

और वह सूबेदारनी कौन थी?

क्‍या मतलब?

तुम अब भी मां से कह रहे थे… उसने कहा था… जो कहा था… मैंने पूरा कर दिया…

हां… मैं जो कर सकता था… वह कर दिया…

लेकिन युद्ध में सूबेदारनी कहां से आ गई?

वह कल्‍पना थी.

तो क्‍या गुलाबो मर गई थी… मैं कल्‍पना में भी याद नहीं आई.

मैं तुम्‍हें उसे मिलाने ले चलूंगा.

हूं… मिलोगे खुद और बहाना मेरा… फौजिया तुद घरे नी औणा था!

मैं अब चला जाता हूं…

मेरे लिए तो तुम कब के जा चुके थे… और आ कर भी कहां आ पाए…

गुलाबो… तुम भूल कर रही हो… मैंने कहा था न… मर्द और कर्द कभी खुन्‍ने नहीं होते… उन्‍हें चलाना

आना चाहिए…

अच्‍छा… अच्‍छा… छोड़ो भी न अब… हीरा आ जाएगा…

और दोनों ओबरी में चले गए. सदियों बाद जो मिले थे. छोटे छोटे सुख मनोमालिन्‍य को धो डालते हैं और एक-दूसरे के प्रति आश्‍वस्ति जीवन का आधार बनाती है-एक मृगतृष्‍णा का पालन दांपत्‍य-जीवन को हरा- भरा बना देता है… गुलाबदेई लहलहाने लगी थी… और आंगन में अचानक धूप खिल आई थी.

लेखक: चंद्रधर शर्मा गुलेरी और डॉ सुशील कुमार फुल्ल

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