‘इस संग्रह की कथाएं स्वयं एक पात्र की तरह व्यवहार करती है’ – चंद्रकांता
कमलेश जी की विवेचनीय कथाएँ शब्द और भाव दोनों दृष्टि से अच्छा डीलडौल रखती हैं। कथा के ट्रीटमेंट की दृष्टि से ये कहानी के भी उतना ही समीप हैं जितना लघुकथा के। यदि उपन्यास महासागर है, कहानी प्रवाहमान नदी है तो लघुकथा सीप में बंद मोती है। ठीक से याद नहीं कब और कहाँ पढ़ा था कि ‘लघुकथा कहानी लिखने से पूर्व की कसरत है’ हम इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी। जब ‘यह आम रास्ता नहीं है ’ पढ़कर समाप्त की तो यही धारणा बनी की लघुकथा स्वयं में पूर्ण हो सकती है, आवश्यक नहीं वह आगे कुछ बड़ा लिखे जाने का अभ्यास ही हो। कहानी के पात्रों का नियंता अमूमन लेखक होता है जबकि लघुकथा स्वयं में एक पात्र की तरह व्यवहार करती है। कथा साहित्य के प्रति लघु समयावधि में हमारी यही समझ बनी है। Hindi literature
इन कथाओं में आद्यांत दादी-नानी की कहानियों की अनुगूंज है। डिजिटल समय में ये कथाएं वाचिक और लोक परम्परा को बचाए रखने का सुखद अहसास देती हैं। इन्हें लोक संस्कृति की सौम्य वाहक कहना अतिरेक न होगा। एक ऐसे समय में जब ‘उपभोक्ता समाज’ ने भौतिक उत्पाद और श्रम के साथ भावनाओं को भी क्रय-विक्रय करने वाली वस्तु बना दिया है ये कथाएँ तनिक मनुष्यता के बचे रह जाने का आश्वासन देती हैं। मन की बात कहूँ! ‘सतसैया के दोहे ज्यो नावक के तीर देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर’ बस यही हासिल इस कथा संग्रह का है।
इन कथाओं में आद्यांत दादी-नानी की कहानियों की अनुगूंज है। डिजिटल समय में ये कथाएं वाचिक और लोक परम्परा को बचाए रखने का सुखद अहसास देती हैं। इन्हें लोक संस्कृति की सौम्य वाहक कहना अतिरेक न होगा।
मेरे विचार में लघुकथा हमें शब्दों का जो अनुशासन सिखाती है वही इस कथा संग्रह में है। शब्दों की मितव्ययता, शब्द शक्ति की मुखरता और सारगर्भित कथ्य किसी भी कथा का केंद्रीय पक्ष होने चाहिए। कहानी हो या लघुकथा लोक व भाषा कथ्य की रोचक प्रस्तुति का एक सलीका है उसे आप अपव्यय करते हैं या अपरिग्रह करते हैं यह आप पर निर्भर है। इस संग्रह में शब्दों की तरलता और अर्थों का स्वाद दोनों उत्तम हैं। कथाओं को तथ्य और शब्द संयोजन दोनों ही दृष्टि से सारगर्भित होना चाहिए। ‘वोकल फॉर लोकल’ के दौर में इन कथाओं का शिल्प लोक की सशक्त आवाज़ बनकर उभरा है।
‘भाषा को बचाकर रख ले जाना’ इन कथाओं का सबसे अधिक आशावादी पक्ष है। ये कथाएँ भाषिक विचलन को सांत्वना देती सी प्रतीत होती हैं। हमारी समझ में भाषा और संस्कृति में परिवर्तन दो सामानांतर बिम्ब हैं। बहरहाल, सभी पर लिखना संभव नहीं किन्तु कुछ ख़ास कथाओं का जिक्र अवश्य ही करना चाहूंगी –
‘जादूगरनी’ एक बेहद परिपक्व और सुघड़ कथा है। इसका कथानक, शिल्प, शब्दबंध और लक्षणार्थ सब सधा हुआ है। यह कथा हैं हमारी रूढ़ियों और स्त्री के प्रति पारम्परिक नजरिए की गिरह खोलती है। एक कथन देखिए, यह इस कथा का सार भी है –
“औरत को न ढंग का पति मिले, न घर बार, न पहनने को कपड़ा और न ढंग का खाना तो वह क्या करे? वह स्वर्णी नहीं रह जाती, वह जादूगरनी बन जाती है”
यह एक बेमेल विवाह की कहानी है जिसका भुगतान नायिका को करना होता है। इस कथा का परिवेश भी रुचिकर है। एक प्रसंग पढ़िए-
‘”नीम की पत्तियाँ झर रही थीं, थोड़ी धूप थोड़ी छाँव में बैठा सोच रहा था कि किस मुँह से स्वर्णी को घर छोड़कर जाने को कहूँ?”
नीक स्थान पर आपको कथाकार प्रेमचंद भी सहसा स्मृत हो आएंगे। इस कथा को पढ़ते हुए आप जान पाएंगे की जुड़वाँ बच्चों का नाम जौड़ा जौड़ी रख देना! कितना अरुचिकर हो सकता है! ‘नौकर’ शब्द का प्रयोग हमें हमेशा से खलता है इसके लिए ‘सहयोगी’ घरेलू सहायक जैसे शब्द का प्रयोग किया जा सकता था।
‘यह आम रास्ता नहीं है’ संग्रह की शीर्षक कथा है। यह बेहद प्रासंगिक मुद्दों को उठाती है। कथा का एक प्रसंग पढ़िए-
“आखिर पति पत्नी के बीच कहाँ से और कैसे दूरियां शुरू होती हैं और इन दूरियों को पाटने की बजाए ख़ामोशी से इन्हें बढ़ते हुए क्यों देखते रहते हैं?”
यह कथा पढ़कर हमारा ग्रहण यह रहा कि – महिलाओं के लिए कोई भी रास्ता ‘आम रास्ता नहीं है’। परिवेश, स्थितियाँ व प्रसंग कोई भी हो जीवन महिलाओं के लिए एक जोखिम ही है। दुनिया की तमाम दौलत-शोहरत और नदी के सबसे शांत मुहाने भी उनके लिए ‘नॉर्मल दुनिया’ का निर्माण नहीं कर सकते। जैसे इस ‘अबनॉर्मल’ के लिए वे अभिशिप्त हैं।
कमलेश भारतीय जी को न केवल कथा कहने का शऊर है बल्कि उसे लोक की आँच पर पकाने का हुनर भी है। ‘उदास शामों का खिलना’, ‘थोड़ी धूप थोड़ी छाँव में बैठा’ जैसे परिवेश विवरणों का प्रयोग एक संजीदा लेखक ही कर सकता है। कथा में आए प्रसंगों के परिवेश को कमलेश जी ने जिस तरह क्राफ्ट किया है वह वाकई काबिल-ए-तारीफ है। ये कथाएँ सरोकारों से लबालब हैं, इसकी भाषा के तेवर मनभावन हैं। किसी भी रचना में हम सभी अपने अपने मन के अनुसार डूबते तिरते हैं। हमारी औसत पाठकीय समझ इसमें कोई दोष नहीं ढूंढ सकी। लेखकीय सौंदर्य से परिपूर्ण इस कथा संग्रह को कथा प्रेमियों द्वारा अवश्य ही पढ़ा जाना चाहिए। आप रत्ती भर नही निराश नहीं होंगे।
लेखक बधाई के पात्र हैं। इंडिया नेट्बुक्स से प्रकाशित यह संग्रह कमलेश जी ने व्यंग्य श्री प्रेम जनमेजय को समर्पित किया है। लेखक ने प्रेम जनमेजय की व्यंग्य यात्रा और अपनी कथा यात्रा को सहयात्री माना है। आपकी मित्रता सलामत रहे। आप लोक का हाथ थामें लेखन की रचनात्मक पगडंडियों पर इसी तरह सक्रिय रहें यही शुभ कामना है।
चंद्रकांता
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