Vijay Vishal विजय विशाल का काव्य संग्रह – चीटियाँ शोर नहीं करतीं

Vijay Vishal  एक पगडंडी का सड़क हो जाना/महज रास्ते का चौड़ा होना भर नहीं है

कविता पर लिखते हुए हम हमेशा एक बात संदर्भित करते हैं – ‘कविता का लिखा जाना एक रचनात्मक परिघटना है लेकिन कविता का पढ़ा जाना उससे भी बड़ी घटना है क्योंकि पाठक लेखक की निर्मिति को अपने अर्थ देकर उसके अर्थ संसार का विस्तार करता है। इस रूप में कविता पाठकों के माध्यम से ही नित  नए अर्थ ग्रहण करती है।’ ‘चीटियाँ शोर नहीं करती’ विजय विशाल जी का कविता संग्रह है। लेखक से हमारा यह पहला परिचय है। ‘चीटियाँ  शोर नहीं करती’ इस काव्य संग्रह की सबसे अंतिम रचना है इस कविता की चंद पंक्तियों से ही लेख की शुरुआत करते हैं –   ‎

चीटियों का कतार में चलना 

सेना के अभ्यास से कम नहीं होता 

मगर चीटियाँ सैनिक नहीं होती ।

इस रचना के माध्यम से कवि यह सन्देश देना चाहता है कि हम चीटियों से सीख सकते हैं – थोड़ा और अधिक इंसान होना। यही भाव उनकी रचना ‘सबसे सुंदर घोंसला (बया)’ और ‘वे (मधुमक्खी) हार नहीं मानतीं’ में भी उभर कर आती है।’कारोबार’ इस संग्रह की सबसे संग्रहणीय रचनाओं में से है। इसकी कुछ पंक्तियाँ देखिए- 

वे जानते हैं/ आपदा को अवसर में/ बदलने की कला 

वे आपदा पैदा करने की कला भी/ बखूबी जानते हैं 

इसी कला के चलते/ पहले उन्होंने 

रोटी पर कब्जा किया/ फिर भूख पैदा करने निकल गए ।

मनुष्यता में, बाजार के दख़ल को ये पंक्तियाँ पूरी नग्नता के साथ उघाड़ती हैं। अपने आस-पास के समाज, राजनीति और बाजार की विद्रूपता व अवसरवादिता और पारिस्थितिकी का गहन बोध विजय विशाल जी की लेखकीय चेतना को इंगित करता है। इस संग्रह की एक कविता है ‘गोद लिए गाँव ’ जो राजनीति के दोहरे चरित्र को बहुत सुंदर विंबो के माध्यम से उघाड़ती है। विशाल जी ने गाँव का जो मानवीकरण किया है वह अपने आप में अद्भुत है।  पूरी कविता  को आप नीचे दी गई तस्वीर में पढ़ सकते हैं। संप्रति कुछ पंक्तियाँ पढ़िए- 

‘जिसने कभी/ नवजात/ न लिया हो गोद में/

उसने/ साथियों से कहा/ ‘आओ गोद ले लें/  एक-एक गाँव 

गोद लेने की घोषणा के साथ/ नापी गई/गाँव की देह/ 

ताकि सिलवाये जा सकें/ साफ-सुथरे नए फैशनेबल कपड़े

गाँव के पाँव का/ लिया गया पूरा-पूरा माप 

जिससे बनवाए जा सकें/ आरामदेह चमकीले जूते/ 

ताकि आसानी से दौड़ा जा सके/ विकास के पथ पर’। 

इस संग्रह की एक और बेहतरीन रचना है – ‘उनके हिस्से का देवता’। यह रचना कविता के माध्यम से देव संस्कृति की आड़ और सामाजिक राजनीतिक संस्थाओं के घाघपान से सम्बंधित विमर्श का अच्छा उदाहरण है। ‘अबकी दंगों के बाद’ भी इसी कतार में एक अन्य कविता है –

अबकी दंगों के बाद/ आग लगाने वाले/ पहचाने नहीं गए

अलबत्ता खबर है कि/ आग बुझाते जरुर कुछ लोग/ पकड़े गए ।   

                   संग्रह में ‘इंसान होने का शऊर’ एक व्यंग्यात्मक कविता है। जो आम आदमी की विवशता और धेर्य की माप से आपकी धमनियों में करुण रस प्रवाहित कर देती है। हास्य आपको गुद्गुदाकार निवृत कर देता है लेकिन व्यंग्य आपके अवचेतन में बचे रह गए मनुष्य को सोचने पर विवश कर देता है। ‘घर से लौटना’ व ‘पढाई बनाम श्रम’ समाज व व्यवस्था की विडम्बना को कुरेदती है।  ‘सुरंग का भूगोल’ हो या विकास के नाम पर किए गए वादों से मोहभंग ये लघु होती जा रही मानवीय संवेदना को परत दर परत उघाड़ती हुई कविताएं हैं। कुछ कविताओं में भावातिरेक या रचनात्मक आवेग भी परिलक्षित होता है जैसे ‘युद्ध के विरुद्ध’ और ‘घर को लौटना’ कविता। ‎Hindi Kavita (Poetry)

                        कवि की मूल चिंता अर्थ पिपासु समाज में संवेदनाओं को बचाए रखने की है। संग्रह में संकलित कविताएं कभी कभी लघु कथाओं का सा सुख देती हैं जिनमें जीवन और प्रकृति की छोटी किंतु  सूक्ष्म व सार्थक बुनावटें हैं। विकास के समक्ष लघु होते जा रहे मनुष्य, विघटित होती पारिस्थितिकी और पहाड़ों की संस्कृति व भाषा को बचाए जाने की हूक इन कविताओं में महसूस की जा सकती है। हुक्का, चिलम, चूल्हा, पगडंडी और भाषा के धुंधलाते जाने एवं इन संज्ञाओं के विशेषण होते जाने के प्रति कवि की उद्विग्नता सहज ही ग्रहण की जा सकती है। समग्र रूप से ये कविताएँ लेखक के राजनीतिक विमर्श और सामाजिक यथार्थ बोध की कविताएँ हैं। लेखक की सराहना करनी होगी की उन्होंने अभिव्यक्ति के तमाम खतरे उठाते हुए ये कविताएँ लिखने का साहस किया है। आवश्यक होने पर कविता के अंत में शब्दों के अर्थ दे दिए गए हैं। यह प्रवृत्ति सुखद है। 

यह काव्य संग्रह प्रलेक प्रकाशन, मुंबई द्वारा प्रकाशित है। पृष्ठों की गुणवत्ता और छपाई बहुत अच्छी है।एक पाठक के तौर पर यह काव्य-संग्रह पढ़कर हमें अच्छा लगा हालाँकि समग्र रूप से गद्यात्मक कविताओं के दौर में छंद सहित कविताओं का अभाव खलता है। बहरहाल, अवसर मिले तो आप भी यह संग्रह पढ़िए, निराश नहीं होंगे। यह संग्रह हमें फरवरी 2021 के उतरार्ध में सुंदरनगर में हुए सांस्कृतिक व साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान डॉ. कर्म सिंह के सौजन्य से मिला था।  

लेखक विजय विशाल का जन्म हिमाचल के मंडी जिले में हुआ। आप शिक्षा विभाग में प्राध्यापक के पद से सेवानिवृत हैं। सांस्कृतिक अध्ययन में आपकी विशेष रूचि है। कविता लेखन के साथ आप कहानी व आलोचना के क्षेत्र में भी हस्तक्षेप रखते हैं। ‘साम्प्रदायिक सद्भाव और हिंदी उपन्यास’ शीर्षक से आपकी आलोचनात्मक पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है। vjyvishal@gmail।com पर आप लेखक से संपर्क कर सकते हैं।  – चंद्रकांता