फुर्सत हो .. तो जरा ठहरिये ..

 कभी-कभी आपको भी नहीं लगता कि हम केवल वह नोट बनकर रह गए है जिसे बाज़ार अक्सर अपनी सुविधा के अनुसार कैश करता है !! भौतिकवाद या पूंजीवाद की कितनी ही आलोचना की जाए लेकिन इस यथार्थ से परहेज़ नहीं किया जा सकता कि विकास, समृद्धि और प्रगति के तत्व उस पर भी अवलंबित हैं. कम समय में ही अधिकाधिक प्रगति की बलवती इच्छा नें सम्भवतः हमारे समक्ष इससे बेहतर और फिलहाल इसके अतिरिक्त कोई और विकल्प बाकी नहीं रहने दिया है.          

लेकिन, जब इन पूंजीवादी मूल्यों की कीमत हमारा अस्तित्व बन जाए तब इस पर विचार किया जाना अवश्यम्भावी हो जाता है. अकेला बाजार दोषी नहीं, क्यूंकि ‘मुनाफे’ में हम सभी हिस्सेदारी चाहते हैं इसलिए ‘आर्थिक डार्विनवाद’ की यह अमर बेल है की सूखती है नहीं प्रत्येक दिवस और अधिक पोषित होती जाती है. हमारे चारों और रच दिये गए ‘हाईपर-रिअलिटी के तिलिस्म’ ने ही अब तक बाज़ार की मनमानी और राजनीति की अवसरवादिता को जिन्दा रखा है.         

हम भूल गए हैं की हम स्वतंत्र हैं.. हम साधन नहीं, साध्य हैं. हम वह चेतना भी हैं जिसमें परिवर्तन के बीज निहित हैं. जो संगठित होकर समाज का, देश का और विश्व का रुख बदल सकता है.  

आत्ममंथन की जरुरत हमें है किसी साइकिल, हाथ, कमल या हाथी को नहीं. हम केवल वोट नहीं है जिसे राजनीति में जब-तब भुनाया जा सके. जब तक हम खुद से प्रश्न नहीं करेंगे; अपनी उन जिम्मेदारियों को नहीं समझेंगे जिनके निर्वहन में हमसे ऐतिहासिक भूलें हुई हैं तब तक, हमें उन बेड़ियों के अधीन रहना होगा जिनकी आदत हमें हो गयी है.  

तो चलिए ..इन हवाओं का रुख बदल दें..   चंद्रकांता