मधुबन के माली..

हे! पीताम्बर
अब तुम चमत्कृत नहीं करते
अनावृत हो चली है
तुम्हारे अधरों पर खेलती 
वह कुटिल मुस्कान

तुम्हारे मस्तक पर, शोभित
यह पंख-मयूर 
आत्मा में
शूल की तरह चुभता है

कहो! कृष्ण
तुम केवल पुरुष ही थे ना
जो छलते  रहे
स्त्री का तन-मन-वचन  
बहरूपिया बनकर

अरे! निर्लज्ज निष्कामी
देखो उस स्त्री को
जो छ-ट-प-टा-ती रही
तुम्हारी दूषित मर्यादा के(द्वारा)
नोच लिए जाने पर 

गुनाहों के देव!
तुम्हारा पीत वस्त्र
बिकता है रात-दिवस
गली-मोहल्ले हर नुक्कड़
कौड़ी के भाव जिस्म बनकर

सच कहो!
तुम्हारा हिय नहीं फट पड़ता
मधुबन के माली..



( पीताम्बर कृष्ण का संकेत यहाँ केवल ‘छलना’ के अर्थ में किया गया है )

चंद्रकांता