बराक नम्बर ग्यारह का वह अनूठा बसंत
जब पेड़ की उनींदी शाखों पर पर नई कपोलें फूटनें लगें, जाड़ों से ठिठुरते हुए पक्षियों की सुस्ती एक मधुर चहचहाहट में बादल जाए , सरसों की पीली बालियाँ लहक – लहक कर यौवन के गीत गा रही हों और जब शांत में संगीत घुल गया हो तो समझ लीजिए बसंत ने आहट की है। बसंत किसी के लिए फसलों की खिलखिलाहट है तो किसी के लिए प्रेम का तोहफा है , किसी के लिए संगीत की लय है तो किसी के लिए मेघदूत का सिंगार । लेकिन, ऋतुराज बसंत के इस राग के माने खेत–खलिहान, साज–संगीत और प्रणय-सिंगार से अधिक कुछ और भी हैं।
अभी कुछ दिन पहले देशभक्ति गीतों पर लिखते हुए अचानक एक बात पर ध्यान गया । ‘मेरा रंग दे बसंती चोला ‘ यह गीत हम सब बचपन से सुनते आए हैं। वक़्त बदला और उसके साथ फिल्मों का सलीका भी, पर भगत सिंह और उनके साथियों पर बनी कोई भी फिल्म इस गीत के बगैर मुकम्मल नहीं हुई । लेकिन इस गीत के बोल आखिर फूटे कहाँ से ! साहिर , शैलेंद्र, मजरूह, कैफी, जां निसार, शकील बंदायूनी … गुलज़ार… जावेद आखिर किस फनकार ने इस गीत को कागज पर उतारा ! जब हमने इन्हें खोजा तो जवाब न में मिला और मालूम हुआ की यह गीत आज़ादी के दीवाने रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा था । जो बाद में आज़ादी की आवाज़ बन गया । बिस्मिल ने कई किताबें भी लिखी उन्हें बेचकर जो कमाई होती उसका इस्तेमाल वे आज़ादी की लड़ाई को मजबूत करने के लिए करते थे । मातृभूमि से इतना विशाल प्रेम देखकर बसंत भी ऐसे नौजवानों के सामने आदर से बिछ जाता होगा ।
1927 की बात है काकोरी रेल डकैती षड्यंत्र में अभियुक्त 19 युवा स्वतंत्रता सेनानी एक साथ लखनऊ सेंट्रल जेल बराक नंबर 11 में थे। बसंत का मौसम था, चूंकि बिस्मिल एक कवि और शायर भी थे तो उनके साथियों में से किसी नें उन्हें बसंत पर कोई गीत लिखने को कहा । इस तरह ‘मेरा रंग दे बसंती चोला‘ गीत असतित्व में आया । यह गीत रामप्रसाद बिस्मिल ने बाकी साथियों की मदद से लिखा । जिसमें बाद में भगत सिंह नें कुछ और पंक्तियाँ जोड़ी । भगत सिंह पर बनने वाली सभी फिल्मों में आपने यह गीत सुना होगा ।
जहां तक हिन्दी सिनेमा की बात है 1965 में मनोज कुमार की फिल्म शहीद से यह गीत हर किसी की जबान पर बैठ गया । फिल्म के गीतकार प्रेम धवन ने बिस्मिल की मूल रचना से प्रेरणा लेकर इस गीत को कंपोज किया और फिर मुकेश, महेंद्र कपूर और राजेंद्र मेहता ने इसे अपनी आवाज़ें दी। मनोज कुमार अपनी फिल्मी टुकड़ी के साथ भगत सिंह के गाँव उनकी माँ से मिलने पहुंचे और कुछ इस तरह बदहाली में पड़े हुए शहीद भगत सिंह के परिवार के बारे में लोगों को मालूम हुआ । हम खुश हो सकते हैं की हमारे हिस्से आज़ादी आई लेकिन , उन सब माँओं का क्या जिनके हिस्से के सब उनसे बसंत छिन गए ! बसंत मन का मौसम है और आज़ादी के इन दीवानों ने मुक्त भारत के सपने को अपने उन्मुक्त मन से सींचा ।
फिलहाल, प्रेम धवन का लिखा गीत तो आप सभी ने सुना होगा यहाँ मूल रचना को पढ़िये और बसंत की खिलखिलाहट को महसूस कीजिये ।
“मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।
इसी रंग में गांधी जी ने, नमक पर धावा बोला ।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।
इसी रंग में वीर शिवा ने, माँ का बन्धन खोला ।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।
इसी रंग में भगत दत्त ने छोड़ा बम का गोला ।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।
इसी रंग में पेशावर में, पठानों ने सीना खोला ।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।
इसी रंग में बिस्मिल अशफाक ने सरकारी खजाना खोला ।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।
इसी रंग में वीर मदन ने गवर्नमेंट पर धावा बोला ।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।
इसी रंग में पद्मकान्त ने मार्डन पर धावा बोला ।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।“
( यह गीत रोहित कुमार हैप्पी जी के लेख से लिया गया है )
चंद्रकांता
अबके बसंत..