Anand 1971 आनंद
Anand 1971- “बाबू मोशाय, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां है, जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है, कौन कब कहां उठेगा, कोई नहीं जानता।”
ऋषिकेश मुखर्जी के इस क्लासिक चलचित्र में फिल्म का नायक आनंद सहगल है जो आँतों के कैंसर ( लिम्फोसर्कोमा ऑफ इंटेस्टाइन ) से पीड़ित है लेकिन इस लाइलाज बिमारी से जूझने की पीड़ा कभी उसके चेहरे पर नहीं दिखाई पड़ती. किसी भी पल आ सकने वाली मृत्यु से जूझता हुआ आनंद अपने प्रत्येक संवाद में हमें जीने का सलीका सिखाता जाता है.
आपको सुनकर आश्चर्य होगा की राजेश खन्ना से पहले ऋषिकेश मुखर्जी नें आनंद के किरदार के लिए शशि कपूर, राज कपूर और किशोर कुमार अप्रोच किया लेकिन किसी न किसी वजह से बात टलती गयी और अंतिम रूप से आनंद की भूमिका राजेश खन्ना नें और सहायक अभिनेता के रूप में डाक्टर भास्कर की भूमिका अमिताभ बच्चन ने निभाई
राजेश खन्ना नें आनंद की भूमिका को डूबकर जिया है; आनंद एक ऐसा किरदार है जो हाथों से छूटती हुई जिन्दगी को बोझिल नहीं होने देता वह उसके एक एक पल का आस्वाद लेता है.आनंद जीवन को पूरे उत्साह से जीता है इसलिए चुनौती से भरी हुई जिन्दगी उसके लिए एक उत्सव बन जाती है. आनंद के संवाद, इसका गीत-संगीत और धुनें सब कुछ एक शानदार लय में है . . हाल ही में फिल्म में रेनू ( भास्कर की प्रेमिका) का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री सुमिता सान्याल का निधन हुआ है . फिल्म में उनकी छोटी लेकिन प्रभावी भूमिका थी. सौम्य सी दिखने वाली सुमिता नें ‘मेरे अपने’, ‘गुड्डी’ और ‘आशीर्वाद’ सरीखी हिंदी फिल्मों में भी काम किया था, वे मूल रूप से बंगाली सिनेमा से जुडी हुई थीं.
फिल्म की शुरुआत ‘आनंद’ नाम की किताब के लोकार्पण से होती है जिसे डाक्टर भास्कर ने लिखा है . धीरे-धीरे किताब के पृष्ठ अनावृत होते हैं और आनंद हमारे मन में बैठता चला जाता है .
आनंद सहगल कहानी का नायक है जिसकी मुलाकात अपनी जिंदगी के बचे हुए आखिरी पलों में डॉक्टर भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) से मुंबई के एक क्लिनिक में होती है। हमेशा गंभीर रहने वाला भास्कर आनंद से मिलकर जिंदगी के नए मायने सीखता है. जिंदादिल नायक आनंद की कभी भी आ सकने वाली मृत्यु के सामने फिल्म का हर एक किरदार विवश नजर आता है. आनंद जीवन को इतने विशाल कैनवास पर जीता है कि उसकी मौत के बाद उसका अजीज़ दोस्त भास्कर अंत में कहता है –
Anand 1971- “आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं।”
‘आनंद ‘ फिल्म के सभी गीत सदाबहार है . इसके गीत जीवन को जीने का भरोसा देते हैं . जीवन के सबसे विकट मोड़ पर खड़ा हुआ आनंद कभी अपने दोस्त डाक्टर भास्कर के लिए आशाओं से भीगे हुए ‘सात रंग के सपने बुनता है’( मुकेश ) ; तो कभी दूर क्षितिज पर ढलती हुई सांझ में खुद को ढूंढते हुए गाता है ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए सांझ की दुल्हन बदन चुराए, चुपके से आये’. कहा जाता है की ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ गीत को योगेश जी नें पहले एल.वी.लक्ष्मण की फिल्म ‘अन्नदाता’ के लिए लिखा था लेकिन बाद में ऋषिकेश दा के अनुग्रह करने पर इसे ‘आनंद’ फिल्म में शमिल कर लिया गया. इस गीत को मुकेश साहब ने अपनी दर्द भरी आवाज़ से संवारा है.
समंदर के किनारे ‘जिंदगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हँसाए कभी ये रुलाए’ गीत गाते हुए रंग-बिरंगे गुब्बारों को आसमान में खुला छोड़ देने के वक्त आनंद के चेहरे पर ख़ुशी और संशय के जो भाव एक साथ उभरते हैं यहाँ शब्दों में उन्हें लिख पाना मुमकिन नहीं लेकिन आप आँख बंद कर इस गीत को सुनेंगे तो पाएंगे कि इस गीत में ‘आनंद’ फिल्म की पूरी कहानी और जिन्दगी के पीछे का दर्शन लिखा हुआ है .
जीवन के हर एक लम्हे को अपनी पूरी ऊर्जा और खिली हुई मुस्कान के साथ जीने वाला आनंद अपनें भीतर जिस पीड़ा को जी रहा है यह गीत सुनकर आप उसे अपने भीतर उतरता हुआ सा महसूस करेंगे. गीतकार योगेश के लिखे हुए इस गीत को सलिल की धुनों पर मन्ना डे नें बेहद खूबसूरत आवाज़ से संवारा है. लता जी और सलील दा का एक शानदार कम्पोजीशन ‘तेरे बिना मेरा कहीं जिया लागे ना; जीना भूले थे कहाँ याद नहीं , तुझको पाया है जहां सांस फिर आई वहीं’ ‘ एक खूबसूरत मधुर रचना है. आनंद फिल्म का हर एक गीत दिल को छू जाता है. आनद हिंदी सिनेमा की उन खूबसूरत उपलब्धियों में से है जहाँ नायक होने का अर्थ ‘सिक्स पैक’ की मार्केटिंग होना नहीं है.
जीवन को एक चुनौती के रूप में देखने वाली और एक सकारात्मक नजरिये को लेकर चलने वाली फिल्मों में आनंद निश्चय ही उम्दा है. आनंद जैसी उम्दा फिल्म बनाने के लिए ऋषिकेश मुकर्जी बधाई के पात्र हैं. आनंद हमें सिखाता है की मौत जीवन की एक अभिन्न सच है; मौत के डर से हम जिन्दगी को जीना नहीं छोड़ सकते इसलिए ‘जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए। जीवन के सलीके को नए मायने देने वाली फिल्म आनंद अविस्मरणीय है .जीवन को हम जितना पकड़ते हैं वह हाथ से उतना ही फिसलता जाता है इसलिए जितने भी पल हमें मयस्सर हुए हैं उन्हें बांधना नहीं जीना सीखिए .इसी बात को ‘आनंद’ बहोत ख़ूबसूरती से बयां करती है. जिन्दगी एक ख्वाब का नाम है जरुरी नहीं की हमारे सब ख्वाब पूरे हों लेकिन हमारे भीतर उन ख़्वाबों को जीने की ललक होनी चाहिए .
आनंद राजेश खन्ना के फ़िल्मी करियर की सबसे बेहतरीन चलचित्रों में एक है, उनकी संवाद अदायगी, मर्मस्पर्शी अभिनय और बेहतरीन गीत-संगीत ने इस फिल्म को भारतीय सिनेमा की अनमोल धरोहर बना दिया। आपके जो भी मित्र या परिवार के सदस्य किन्ही वजहों से जीवन की उम्मीद छोड़ चुके हैं या अवसाद से जूझ रहे हैं आपको उन्हें यह फिल्म जरूर दिखानी चाहिए, क्या मालूम कब कोई बात असर कर जाए. ‘आनंद’ जिन्दगी का उत्सव है आप सभी को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए .
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