क्यूंकि, बेहूदा मानसिकता की कोई हद नहीं..
क्यूंकि, बेहूदा मानसिकता की कोई हद नहीं.. स्त्री का श्रृंगार से रिश्ता एक कभी न ख़त्म होने वाले उत्सव की
Continue reading'मैं कुछ अलहदा तस्वीरें बनाना चाहती हूँ जैसे अंबर की पीठ पर लदी हुई नदी, हवाओं के साथ खेलते हुए, मेपल के बरगंडी रंग के पत्ते, चीटियों की भुरभुरी गुफा या मधुमक्खी के साबुत छत्ते, लेकिन बना देती हूं विलापरत नदी पेड़ पंछी और पहाड़ ।'
क्यूंकि, बेहूदा मानसिकता की कोई हद नहीं.. स्त्री का श्रृंगार से रिश्ता एक कभी न ख़त्म होने वाले उत्सव की
Continue reading‘शहरों के लोग बेहद असंवेदनशील होते हैं’ ! ‘उनके सीने में दिल नहीं होता’ !! आपको भी ऐसे विश्वास सुनने
Continue readingबस, मुझी से प्रेम करो‘!!!एक अजीब सी समझ है यह प्रेम को लेकर ..एक विकृत सी रोमानियत.हम प्रेम को व्यक्ति/देह
Continue reading1 प्रिय ! बहुत बार तुमसे कहना चाहा किन्तु, प्रेम में गढ़ दिए गए शब्द नहीं तय कर पाए फासले
Continue readingजिंदगी के कुछ खट्टे कुछ कड़वे पलछिनों को, आज जाड़ों की मीठी धूप मेंअपने गुलाबी दुपट्टे पर रख बिछा दिया जिनके बरसों अलमारी
Continue readingदामिनी , काश ! उसी दिन मैंने उसकी आँखें नोच ली होती जब पुरुष की तरह दिखने वाली उस काली ब-ह-रू-पि-या आकृति ने मुझे छुआ
Continue readingहे! पीताम्बर अब तुम चमत्कृत नहीं करते अनावृत हो चली है तुम्हारे अधरों पर खेलती वह कुटिल मुस्कान तुम्हारे मस्तक
Continue readingकलाकृति..आज कुछ टूटे-फूटे, विस्मृत कंकड़-पत्थर साफ़ किये जो मुंडेर पर बिखरे पड़े थे बेफिक्र, बेतरतीब से अनमने यहाँ-वहाँ.. मैंनें, निर्भीक चुन लिया सभ्यता के अधि-शेष सूत्रों
Continue readingमैं भीख हूँ धूल से लबरेज़ खुरदरे हाथ-पाँव सूखे मटियाले होंठ, निस्तेज अपनी निर्ल्लज ख-ट-म-ली देह को जिंदगी की कटी-फटी-छंटी
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