तुम्हारी परछाई ..

जिंदगी के कुछ खट्टे 
कुछ कड़वे  
पलछिनों को, आज 
जाड़ों की मीठी धूप में
अपने गुलाबी दुपट्टे पर रख 
बिछा दिया   

जिनके बरसों  
अलमारी में 
बंद पड़े रहने से  
कुछ सी-ल-न      
और कुछ धूल जमा हो आई थी   

अतीत को 
लांघकर देखा 
तो खुद को, क़ैद पाया 
परिधि पर  
तुम्हारे संस्कारों की चौकीदारी में 

और अनावृत हुए 
वे प्रणय-पृष्ठ भी 
जिन्हें कभी 
चीन्हा था मैंने, तुममें 
अपनी स्वाति संवेदनाओं से      

किन्तु, 
तुम्हारी छुअन से अनुस्यूत 
उन विषम धाराओं में आज 
तिनका भर भी   
डूब न सकी   

सुनो !
अपनी डिक्शनरी में 
दर्ज कर लो,  कि 
तुम्हारी हथेली के 
आड़े-तिरछे मोड़ों पर  
मैं अब भी रुक जाती हूँ 

लेकिन अब 
तुम्हारी परछाई 
मेरे अस्तित्व को जूठा नहीं करती  ..



चंद्रकांता